वास्को दी गामा (Vasco da Gama) की भारत यात्रा का उसकी मां इजाबेल दी गामा (Isabel da Gama) से बहुत ही गहरा संबंध है। वास्को दी गामा बचपन में जब भी अपने घर में मां के हाथ का बना खाना खाता था तो उसे एक अलग ही स्वाद और एहसास होता था। आखिर उसने एक दिन उससे पूछ ही लिया कि मां आपके हाथ के बनाये खाने में ऐसी क्या बात है कि वो सबसे अलग और स्वादिष्ट तो होता ही है परंतु उसकी महक और सुवासिता दूर दूर तक रहती है। ऐसी क्या बात है माँ.....तब उसे मां ने बताया कि बेटा इस खाने में दूर देश भारत से आये एक मसाले का कमाल है जिसे कालीमिर्च कहते हैं। बेटा यह मसाला बहुत ही कीमती है जो मंहगी धातुओं से भी ज्यादा मूल्यवान है। तब वास्को ने अपनी मां से कहा कि मां मैं उस देश में जरूर जाऊंगा जो मेरी मां के हाथ से बने खाने के स्वाद को बढ़ाता है। माँ ने कहा कि बेटा वो यहां से बहुत दूर है और समुद्र के रास्ते बेहद कठिन और रहस्यमय हैं। उस समय भाषा की समस्या के साथ साथ समुद्री लुटेरों का भी आतंक था। लेकिन उसी समय वास्कोडिगामा ने मां से वादा किया कि मां चाहे कुछ भी हो जाये में जरूर जाऊंगा। और उस समय पूरी दुनियां में भारतीय मसालों में कालीमिर्च और इलाइची की धूम मची हुई थी। इस कारण समुद्री व्यापार के नए नए रास्ते खोजने के लिए सरकार आम जनता को प्रोत्साहित करती थी और समूह बना कर समुद्री रास्ते खोजने के लिए दल भेजती थी। इसके लिए धन की व्यवस्था सरकार खुद करती थी।
अभी हम जो लाल मिर्च का उपयोग मसालों में करते हैं वो तो काली मिर्च का विकल्प है जो पुर्तगालियों ने महंगी कालीमिर्च के स्थान पर उपयोग में लेना शुरू कर दिया था। जो उनके साथ साथ हमारे द्वारा भी उपयोग में लेना शुरू हो चुका था। आज भी लाल मिर्च का उपयोग भारतीय मसालों में बहुतायत में होता है और अपेक्षाकृत कालीमिर्च से बहुत अधिक सस्ती भी हैं। वास्को डी गामा भारत से काली मिर्च पुर्तगाल ले जाते थे। उस समय तक भारत में हरी मिर्च की खेती नहीं होती थी। भारत में हरी मिर्च को पुर्तगाली ही 16 वीं सदी में लेकर आए। आज भारत हरी मिर्च (मलयालम में मुलाकू) का सबसे बड़ा उत्पादक भी है।
तत्कालीन समय में भारत से कालीमिर्च का व्यापार सिल्क रुट के अलावा अन्य समुद्री रास्तों से भी वस्तु विनिमय के रूप में होता था। उस समय भारत पूरी duniyan की 24 फीसदी व्यापार की हिस्सेदारी का अकेला मालिक होता था। लेकिन धीरे धीरे भारत पर मसालों के दबाब के चलते पूरी duniyan की निगाहें टेढ़ी होती चली गईं और समुद्रों पर राज करने वाले देशों ने भारत पर कब्जा करना शुरू कर दिया। यूरोपीय देशों के पास जहाज बनाने की तकनीकी ने भारत की ग़ुलामी के रास्ते खोल दिये और परिस्थितियों में बदलाव आता चला गया। यह सब अब इतिहास का हिस्सा है। आज भारत की अंतरराष्ट्रीय स्थिति धीरे धीरे सुदृढ़ होती जा रही है और विश्व की पांचवी बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुकी है। चलिए अब बात करते हैं वास्को दी गामा की....
वास्को दी गामा एक पुर्तगाली खोजकर्ता और समुद्री यात्री थे जो 8 जुलाई 1497 को भारत की खोज में 20 मई 1498 में भारत के मालबार तट पर केरल के कोझीकोड जिले के कालीकट (काप्पड़ गांव) में आगमन करने वाले पहले यूरोपीय यात्री बने। उनकी इस यात्रा में 170 नाविकों के दल के साथ चार जहाज लिस्बन से रवाना हुए। भारत यात्रा पूरी होने पर मात्र 55 आदमी ही दो जहाजों के साथ वापिस पुर्तगाल पहुंच सके। वह यूरोप से भारत सीधी यात्रा करने वाले जहाजों के कमांडर थे, जो केप ऑफ गुड होप, अफ्रीका के दक्षिणी कोने से होते हुए भारत के समुद्री तट तक पहुंचे थे। वह मोजाम्बिक, मोम्बासा, मालिन्दी होते हुए भारत के कालीकट बंदरगाह पहुंचे। "इंडियाज साइंटिफिक हेरिटेज" नाम की बुक में सुरेश सोनी ने पुरातत्वविद डॉ. विष्णु श्रीधर वाकणकर के हवाले से लिखा है कि वास्को डी गामा भारत में एक खोजी व्यापारी की ही तरह आये थे, मगर एक गुजराती व्यापारी का पीछा करते हुए वह यहां पहुंचे। यहीं से कुछ दूर कोच्ची में वास्को की कब्र है। यहां से तीन बार वे पुर्तगाल गए और आये। वास्को के इंडिया आने के बाद पुर्तगाली भी भारत में आये और गोवा में उन्होंने अपना साम्राज्य स्थापित किया। इससे पहले, भारत के सागरीय रास्तों से यूरोपीय व्यापारियों के लिए रास्ते खोजने का प्रयास कई बार विफल हुआ था।
वास्को दी गामा की भारत यात्रा का मुख्य उद्देश्य भारतीय समुद्री व्यापार के लिए नए रास्ते खोजना था, जिससे पुर्तगाल को मालबार तट से साम्राज्यवादी खजाने और व्यापारिक लाभ मिल सकते थे। उनके इस सफल प्रयास ने भारत और यूरोप के बीच संबंधों को एक नया मोड़ दिया और पुर्तगाली ब्राउनी से समुद्री रास्तों के रूप में ज्ञात होने वाले रास्ते पर भारत के साथ नए यूरोपीय व्यापारिक संबंधों की शुरुआत की।
वास्कोडिगामा की यात्रा का विवरण कुछ इस प्रकार से है कि...
वे लिस्बन से यात्रा शुरू कर के मोजाम्बिक पहुंचे। यहां के सुल्तान की मदद से 20 मई 1498 को वे कालीकट के तट पर पहुंच गए। वहां किसी तरह से उन्होंने कालीकट के राजा से बातचीत और उपहार देकर उपकृत किया तथा उनसे कारोबार करने की संधि भी कर ली। 1502 को वास्को डी गामा फिर भारत आए और कोच्चि के राजा से व्यापार करने का समझौता किया। इसके तहत मसालों का कारोबार बनाए रखने की संधि हुई। 1524 में वास्को डी गामा तीसरी बार भारत पहुंचे और यहीं उनकी 24 मई 1524 को मौत हो गई। पहले उन्हें कोच्चि में ही दफनाया गया। बाद में 1538 में उनकी कब्र खोदी गई और वास्को डी गामा के अवशेषों को पुर्तगाल ले जाया गया। लिस्बन में आज भी उस जगह एक स्मारक है जहां से वास्को डी गामा ने पहली भारत यात्रा शुरू की थी।
यहां आपको फिर से बता दें कि किसी भी व्यक्ति के बच्चों की सफलता में उनके मां बाप की प्रेरणा और आशीर्वाद का बहुत महत्व होता है। इसी क्रम में वास्को की मां का भी अहम रोल था। वास्को दी गामा की मां का नाम इजाबेल दी गामा (Isabel da Gama) था। उनकी मां ने अपने पुत्र की समुद्री खोजी यात्रा के संचालन में न सिर्फ प्रोत्साहित किया वल्कि उसके साथी यात्रियों के लिए समर्थन भी प्रदान किया। उनकी सफलता के बाद, वास्को दी गामा ने भारतीय समुद्री राष्ट्रों और यूरोपीय व्यापारियों के बीच नए संबंधों की नींव रखी।
यह भी रोचक है कि वास्को दी गामा की यात्रा के बाद भारतीय समुद्री राष्ट्रों और पुर्तगाली साम्राज्यवाद के बीच भयंकर संघर्ष शुरू हुआ, जिसका परिणाम भारत के प्राचीन व्यापार और सांस्कृतिक संबंधों की तोड़फोड़ के रूप में हुआ।
सूचना स्रोत:
Internet Website & Newspapers.
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